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शेखावाटी की होली तब और अब Holi of Shekhawati then and now



भंवरसिंह शेखावत, सीकर

शेखावाटी जनपद अपनी सांस्कृतिक, धार्मिक एवं समृद्ध सामाजिक परम्पराओं के लिए प्रसिद्ध है। यहां का जन जीवन वर्षभर विभिन्न लोक उत्सवों, त्यौहारो, पर्यो, मेलो के माध्यम से लोक संस्कृति को अपने रंग एवं ढंग से सम्पूर्ण उल्लास एवं खुशियों के साथ मनाता है। सभी धर्मों एवं सम्प्रदाय के लोग एक दूसरे के त्यौहारों में शामिल होकर खुशियों को आपस में बांटते है। शेखावाटी के सीकर, चूरू, झून्यूनूं जिलों में होली का त्यौहार परम्परागत रूप से एक ही तरह मनाया जाता है। यहां का जन मानस रंगो एवं उमंगो के इस त्यौहार की वर्ष भर प्रतिक्षा करता है। गुलाल और अबीर, चंद और बांसुरी, गिन्दड़ एवं सांग के माध्यम से पूरे उल्लास के साथ इस पर्व का आनन्द लेते है।

शेखावाटी जन पद में बसंती बयार के साथ होली का उत्सव शुरू हो जाता है। आज यद्यपि करों एवं शहरों में यह प्रथा लुप्त हो गई है परन्तु ग्रामीण अंचल में आज भी फाल्गुन मास शुरू होते ही होली का डण्डा रोपने (स्थापित) करने के साथ ही होली का पर्व प्रारम्भ होता है। रंगों ओर प्रेम का यह त्यौहार चंग की थाप और बांसुरी की सुरीली राग के साथ मस्तानों की टोलियां धमाल के माध्यम से माहौल को उल्लास और खुशियों से भर देते है।

कुछ वर्षों पहले तक शेखावाटी के लोग अपने परिवार से दूर अकेले दिशावर में रहकर जीवकोपार्जन करते थे। दूसरे प्रदेशों में रहकर नौकरी, व्यवसाय करने वाले, फौज में नौकरी करने वाले, यहां तक की विदेशो में रहने वाले लोग भी होली के त्यौहार पर छु‌ट्टी आकर अपने मित्रों एवं साथियों के साथ पूरे एक महीने चलने वाले इस पर्व का आनन्द लेते थे। गली मौहल्ले में युवाओं की टोलियां चंगो की थाप एवं बांसुरी की स्वर लहरियों पर पैरों में घुंघरू बांध कर रात रात भर होली के गीतों पर नृत्य करते। तरह-तरह के सांग बनाते, महिलाओं के कपड़े पहन कर नृत्य करते एवं इस तरह पूरे वातावरण को फाल्गुनी बना देते। एक अलग ही आनन्द, अलग ही उमंग, अलग ही जोश बस होली ही होली।


संध्या के समय चंगो एवं ढों पर होली की धमाल से शुरू हुआ कार्यक्रम रात ढले रंग बिरंगी बान्दरवार से सजा कर सार्वजनिक चौक पर तख्तो पर नगाड़े पर डंके की चोट पर गिन्दड़ कार्यक्रम शुरू हो जाता। शेखावाटी की गिन्दड़ की अपनी एक विशेषता होती है कि इसमें कलाकारों के पैरो के घुंघरूओं और डण्डो की खनक एक ताल और एक लय होते है। इन सबके बीच बांसुरी की स्वर लहरियां चांदनी रात की सुन्दरता में मिठास घोल देती है।


युवा टोलियों को पता ही नहीं चलता कि कब रात ढल गई और घर जाने की सुध ही नहीं रहती। उधर नवप्रौढायें अपने प्रियतम के आने की प्रतिक्षा एवं वियोग में गा उठती थी.... चांद चढयों गिगनार, पिउजी अब तो घरां पधार, मरवण तरसे जी-तरसे जी।


युवाओं की टोलियों में चंग और गिन्दड़ की मस्ती का आलम दिन में भी चलता रहता था। आपसी हंसी मजाक, हास परिहास, उपहास, ठिठोली आदि की स्वस्थ परम्परा रही है। न तो मस्करी करने वाले को संकोच होता और न कोई उसका बुरा मानता क्योकि बुरा न मानो होली है। वास्तव में होली के पर्व पर कोई किसी बात का बुरा नहीं मानता था। होली के दिनो विशेष रूप से गांवों से शहर आने वाले भोले भाले ग्रामीण लोगों की तो सामत आ जाती थी। सड़क पर सिक्का चिपका देना, रस्सी से रूमाल को ऊपर खेच लेना जैसी मस्करिया होली के दिनों में चलती रहती और लोग समूह में इसका आनन्द लेते।धीरे धीरे हंसी मजाक, उपहास बन्द होता गया। टेलीविजन संस्कृति एवं शिक्षा के प्रचार प्रसार के कारण लोग इसे अशिष्टता मानने लगे। लोगों के उपहास मजाक सहन करने की शक्ति कम होने लगी। आनन्द और मस्तीका समय कब भाग दौड़ और आपाधापी में बदल गया, कुछ पता ही नहीं चला। वर्तमान पीढि के लिए ये सब बातें बीते जमाने की बात हो गई और हम पाश्चात्य धुनों एवं पहनावें में अपनी पहचान खो बैठे । सांस्कृतिक परम्पराये लुप्त एवं गौण होती गई और अन्य बड़े शहरों की तरह हमारा शेखावाटी अंचल भी होली की खुशियों से दूर होता चला गया। होली की धमाल और चंगो की थाप कैसिटो में सिमटकर रह गई। होली का त्यौहार औपचारिकताओं में बदल गया। लोगों के जीवन में उल्लास कम, विषाद ज्यादा पैदा हो गया। आपसी प्रेम और भाईचारा मन मुटाव और राग द्वेष में बदल गया।


अब होली के दिन शाम को किसी सार्वजनिक चौक पर मौहल्ले के कुछ लोग समूह में आकर होली दहन करने एवं दूसरे दिन अपने लोगों के साथ होली खेल कर होली के पर्व की औपचारिकतायें पूरी कर लेते है। कुछ सार्वजनिक संगठन चंग नृत्य अथवा गिन्दड़ नृत्यों का आयोजन अवश्य करते है परन्तु आम जन अपने दैनिक जीवन में कम्प्यूटर, मोबाईल, लैपटोप, नेट और चेट अथवा वाणिज्य व्यवसाय, कैरियर आदि में इतने व्यस्त हो गये है कि हमें त्यौहरों की सार्थकता के बारे में सोचने अथवा उसे परम्परागत रूप से मनाने का समय ही नहीं मिलता।


अलबत्ता शेखावाटी के रामगढ़, लक्ष्मणगढ़, फतेहपुर, नवलगढ़ आदि कस्बों में अब भी फाल्गुन के महीनें में चंग और ढप के साथ होली की धमाल और बांसुरी के सुर सुनाई देते है परन्तु युवाओं में नशे के प्रचलन के कारण अब इन आयोजनों में पहले जैसी मस्ती, समरसता, अपनापन और उमंग नहीं रहती। आज भी बुजुर्ग लोगों से अपने समय में होली के दिनों में युवाओं की मत्ती के किस्से सुने जा सकते है। हम अपने सांस्कृति पर्वो और त्यौहारों को पुनः उसी समृद्ध परम्परा के साथ उसी ताल और लय में आकर मनायेगें, नई पीढि को टेलीविजन संस्कृति से हटकर वास्तविकता के धरातल पर इस फाल्गुनी त्यौहार से प्रेम और उमंग के सतरंगी रंग चुनने होगे तो ही हम अपनी वैभवशाली गौरवमयी समृद्ध सामाजिक रिश्तों को पुनः स्थापित कर पायेगे।