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धनखड़ का इस्तीफा - लोकतंत्र की दीवारों में पड़ी एक और दरार Dhankhar's Resignation – Another Crack in the Wall of Democracy


महेश झालानी

भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में 21 जुलाई की शाम एक ऐसा धुंधलका लेकर आई, जिसने सिर्फ एक संवैधानिक पद को नहीं खाली किया, बल्कि सत्ता और संविधान के बीच दरकते रिश्तों को एक बार फिर उजागर कर दिया। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने अचानक राष्ट्रपति को अपना इस्तीफा सौंप दिया। वजह बताई गई—"स्वास्थ्य संबंधी परेशानी", लेकिन सूत्रों की मानें तो पर्दे के पीछे की कहानी कहीं ज्यादा गंभीर, पेचीदा और चिंताजनक है।

सूत्रों का दावा है कि धनखड़ पर इस्तीफे का सीधा दबाव बनाया गया। न माने तो...? यही "अनकहा" उनकी विदाई की वजह बना। दिलचस्प बात यह है कि सत्ता पक्ष के साथ-साथ कुछ विपक्षी चेहरे भी इस स्क्रिप्ट में साइलेंट विलेन की भूमिका में थे।

धनखड़, जो राजस्थान की सियासत से निकलकर दिल्ली के सबसे ऊंचे संवैधानिक पदों तक पहुंचे, अपनी स्पष्टवादिता और सख्त रवैये के लिए जाने जाते रहे हैं। लेकिन 21 जुलाई की शाम, उन्होंने बिना शोर-शराबे, बिना प्रेस कॉन्फ्रेंस, चुपचाप राष्ट्रपति भवन को अपना त्यागपत्र सौंप दिया। सबसे बड़ा सवाल यह है कि उसी दिन वे संसद की बिजनेस एडवाइजरी कमेटी की बैठक की अध्यक्षता कर रहे थे, और वहां वे पूरी तरह सक्रिय नजर आए। फिर अचानक ऐसा क्या हुआ?

बताया जा रहा है कि उपराष्ट्रपति को यह भ्रम हो गया था कि वे मोदी-शाह से ऊपर हैं। संसद टीवी को उन्होंने निजी जागीर बना डाला, और दर्जनों कैमरे हर वक्त उनके इर्द-गिर्द मंडराते रहे। कई कर्मचारियों को दरकिनार कर अपने करीबी और रिश्तेदारों को लाभ पहुंचाने की कोशिशें की गईं। कुछ को सरकारी वकील, तो कुछ को जज बनवाने में भी उन्होंने अपने प्रभाव का इस्तेमाल किया।

वास्तविक टकराव तब सामने आया जब उपराष्ट्रपति ने विपक्ष द्वारा लाए गए न्यायमूर्ति सत्यवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। सत्ता चाहती थी कि प्रस्ताव को तकनीकी आधार पर खारिज किया जाए, लेकिन धनखड़ ने संवैधानिक मर्यादा का हवाला देते हुए इनकार कर दिया। यहीं से समीकरण बिगड़ गए।

सूत्रों के मुताबिक, केंद्रीय मंत्री किरण रिजिजू और प्रह्लाद जोशी ने उनसे मुलाकात की, लेकिन नतीजा शून्य रहा। कुछ ही घंटों बाद उनका इस्तीफा राष्ट्रपति को भेजा गया और रातोंरात सरकारी आवास खाली करने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई।

सरकार ने इसे उनका "निजी निर्णय" बताया। मगर सवाल कायम हैं—अगर यह वाकई स्वास्थ्य कारणों से हुआ, तो अचानक क्यों? कोई मेडिकल बुलेटिन क्यों नहीं? प्रधानमंत्री या मंत्रियों की कोई औपचारिक मुलाकात क्यों नहीं?

विपक्ष ने सरकार पर तीखा हमला बोला।
कांग्रेस, तृणमूल, राजद, सीपीएम सभी ने एक सुर में कहा—"धनखड़ को मजबूर किया गया।"
अशोक गहलोत बोले—"सच आरएसएस और बीजेपी जानती है।"
सचिन पायलट ने कहा—"अगर उपराष्ट्रपति की आवाज दबाई जा सकती है, तो बाकी संस्थाओं की क्या बिसात?"

यह घटना बताती है कि जब कोई संवैधानिक पदधारी सत्ता की लाइन से हटता है, तो उसके लिए कुर्सी नहीं, इतिहास में मजबूरी की एक दुखद कहानी लिखी जाती है।

हालांकि यह भी सच है कि उपराष्ट्रपति रहते हुए धनखड़ ने ममता सरकार के साथ राज्यपाल की बजाय बीजेपी नेता की तरह बर्ताव किया। ममता को नीचा दिखाने के चक्कर में उन्होंने संवैधानिक मर्यादाओं को कई बार लांघा भी। शायद इसी "वफादारी" का इनाम उन्हें उपराष्ट्रपति बनाकर मिला, लेकिन सत्ता के भीतर हिटलरशाही जब सत्ता के खिलाफ मुंह उठाए, तो अंजाम निश्चित होता है।

संविधान का यह प्रहरी अब सत्ता के लिए बोझ बन गया था।
धनखड़ का जाना सिर्फ एक इस्तीफा नहीं, लोकतंत्र की उस दीवार पर एक और गहरी दरार है, जो दिन-ब-दिन कमजोर हो रही है।

अब सवाल यह है—
📌 क्या संवैधानिक पद अब सत्ता की "अनुकूलता" पर टिके रहेंगे?
📌 क्या निष्पक्षता दिखाने वाला हर व्यक्ति असहज करार दिया जाएगा?
📌 अगर उपराष्ट्रपति सुरक्षित नहीं, तो बाकी संस्थाओं की स्वतंत्रता कितनी बची है?

धनखड़ इतिहास में हिटलरशाही और हठधर्मी सत्ता संघर्ष के प्रतीक बन जाएंगे। लेकिन उनकी विदाई यह भी सिखा गई कि जो सत्ता से सामंजस्य नहीं बिठाएगा, वह कब और कैसे किनारे लगाया जाएगा—यह आज तय नहीं होता, बल्कि पहले से लिखा जाता है।