बाल मुकुंद जोशी
राजनीति का स्तर गिरता है, मगर नागौर की ज़मीनी सियासत इन दिनों रसातल में जा गिरी है। मुद्दों की जगह अब माइक पर छींटाकशी, मंच से गाली-गलौज और सोशल मीडिया पर चरित्र हनन की बाढ़ आ गई है।
कभी किसानों की आवाज़, बेरोजगारी की बहस और विकास की बात करने वाले जनप्रतिनिधि अब एक-दूसरे की "लांग" खोलने में जुटे हैं। लोकतंत्र के नाम पर शुरू हुई बहस अब व्यक्तिगत हमलों और पुरानी रंजिशों की तलछट तक जा पहुंची है।
सबसे बड़ा सवाल यह है कि नागौर की जनता अब क्या चुने — जनसेवक या जलेबियाँ तलते ‘ठरकी नेता’?
दरिद्र भाषा, बेपर्दा नीयत
राजनीतिक मर्यादाओं की धज्जियाँ उड़ती जा रही हैं। सभी दलों के नेता एक-दूसरे के खिलाफ़ ऐसे अल्फ़ाज़ बोल रहे हैं जिन्हें सुनकर खुद गालियाँ भी शर्मा जाएं। ज़ुबान इतनी नीचे गिर चुकी है कि अब रिछपाल मिर्धा जैसे पुराने बयानों के 'ठरके' भी फीके लगने लगे हैं।
पुराने केस खंगालकर मंचों से लांछन लगाए जा रहे हैं — न कोई संकोच, न कोई नीयत साफ़। साफ़ दिख रहा है कि जनता की सेवा की जगह अब सियासत में "बदले की आग" जल रही है।
बेनीवाल के बाण और विरोधियों की पलटवार
हनुमान बेनीवाल, जो कभी संघर्ष का पर्याय माने जाते थे, अब तीखे तेवरों और जुबानी हमलों के लिए चर्चा में हैं। उनके विरोधी भी अब उन्हीं की जुबान में जवाब देने को तैयार बैठे हैं। एक ओर से लपटें उठती हैं, दूसरी ओर से धुआं — जनता का दम घुटना तय है।
विकास गायब, बयानबाज़ी हावी
कभी जिस ज़िले को मारवाड़ का राजनीतिक गढ़ कहा जाता था, आज वहाँ मंचों से विकास की बात गायब है। नेता अब मुद्दों की जगह एक-दूसरे की निजी जिंदगी के पन्ने फाड़ने में व्यस्त हैं।
क्या यह वही नागौर है जहां लोकतांत्रिक विमर्श का सम्मान था? या अब यह वह ज़मीन बन गई है जहां राजनीति नहीं, सिर्फ़ तमाशा होता है?
नागौर की राजनीति इस समय संक्रमण काल में है — जहां नेता जनभावनाओं से नहीं, ईगो से संचालित हो रहे हैं। भाषा की मर्यादा टूट चुकी है, और भरोसे की डोर जनता के हाथ से फिसलती जा रही है।
शायद अब जनता को ही तय करना होगा — लांग खुलने से पहले लोकतंत्र को बचाया जाए या फिर तमाशा देखते हुए सब कुछ लुट जाने दिया जाए।