Ticker

6/recent/ticker-posts

Header Ads Widget

Responsive Advertisement

राजस्थान कांग्रेस जातीय खेमें बंदी में उलझी

राजस्थान कांग्रेस इन दिनों जिस तरह जातीय खेमेबंदी के दलदल में धंसती जा रही है, वह केवल संगठनात्मक कमजोरी नहीं, बल्कि नेतृत्व की दिशा खोने का संकेत भी है. हाल के महीनों में पार्टी के भीतर यह प्रवृत्ति तेजी से उभरी है कि नेता और कार्यकर्ता खुद को “सबसे बड़ी जात” का प्रतिनिधि बताकर राजनीतिक वजन बढ़ाने लगे हैं. यह वही कांग्रेस है जो लंबे समय तक सर्वधर्म और सर्वजातीय संतुलन की राजनीति का प्रतीक मानी जाती थी. परंतु अब संगठन के अंदर जातिवाद का जो ज़हर फैल रहा है, उसने कांग्रेस की सामूहिक पहचान और वैचारिक विरासत पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है.

पार्टी के भीतर स्थितियाँ इस हद तक बदल चुकी हैं कि कई स्थानों पर पदाधिकारियों की नियुक्ति का आधार अनुभव, संघर्ष या संगठन क्षमता न होकर केवल जातिगत समीकरण रह गया है. यह परिस्थिति कांग्रेस को एक लोकतांत्रिक संस्था की बजाय जातीय बिरादरी आधारित मंच के रूप में प्रस्तुत करने लगी है. स्वार्थ के इस खेल में बड़ी जिम्मेदारी संभालने वाले नेता भी अपने राजनीतिक “भले” के लिए संगठन के दीर्घकालिक हितों को नजरअंदाज कर रहे हैं. इससे कांग्रेस की परंपरागत पहचान—समावेशी राजनीति—गंभीर संकट में है.

आज की इस जातीय राजनीति के बीच अतीत की तुलना और भी तीखी दिखती है. कभी कांग्रेस में ऐसे कार्यकर्ताओं को महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ मिलती थीं, जो पार्टी की नीतियों को आत्मसात करते थे, अनुशासित होते थे और संगठन की ज़मीन को समझते थे—चाहे उनकी कोई जातिगत ठसक न हो.

सूरज खत्री इसका प्रतीकात्मक उदाहरण हैं. लगभग 24 वर्षों तक पीसीसी के प्रमुख महामंत्री रहे खत्री ने कांग्रेस के आठ प्रदेशाध्यक्षों के साथ काम किया—स्व. हीरालाल देवपुरा, स्व. परसराम मदेरणा, अशोक गहलोत, स्व. गिरिजा व्यास, डॉ. बी.डी. कल्ला, नारायण सिंह, डॉ. चंद्रभान और डॉ. सी.पी. जोशी.

पंजाबी समुदाय से होने के बावजूद खत्री की पहचान जातीय आधार पर नहीं, बल्कि संगठन निर्माण और रणनीति कौशल पर टिकती थी.उस दौर में नेतृत्व की प्राथमिकता जाति नहीं, योग्यता और संगठनात्मक मजबूती हुआ करती थी—यही वजह थी कि खत्री वर्षों तक कांग्रेस के केंद्र में बने रहे.

वर्तमान परिदृश्य इसके ठीक उलट है. आज कांग्रेस में महामंत्री जैसे पद पाने के लिए साम–दाम–दंड–भेद सबका इस्तेमाल सामान्य बात हो गई है. हालात यह तक बन गए हैं कि कई बार प्रदेशाध्यक्ष को अपनी ही कार्यकारिणी की सही संख्या का अंदाजा नहीं रहता.

जंबो जेट जैसी कार्यकारिणी न केवल संगठन की गंभीरता को पलीता लगाती है बल्कि यह संदेश भी देती है कि पद अब योग्यता नहीं, बल्कि समीकरणों की “फिटिंग” का परिणाम हैं.

यही कारण है कि आज भी पूरी तरह सक्रिय और सक्षम रहते हुए सूरज खत्री जैसे अनुभवी कार्यकर्ता कांग्रेस की मुख्यधारा से दूर चले गए हैं. उनकी दूरी केवल व्यक्ति का निर्णय नहीं, बल्कि कांग्रेस की बदलती संस्कृति का दर्पण भी है.