राजस्थान में कांग्रेस संगठन आजकल पूरी तरह धका-धका नजर आ रहा है. जब से सूबे में कांग्रेस की सत्ता गई आम कार्यकर्त्ता घर पर ही बैठ गया है हालांकि लोकसभा चुनाव के नतीजों से कुछ हलचल जरूर मची थी लेकिन विधानसभा उप चुनाव के परिणामों ने बड़े से बड़े नेताओं को कोमा में ला दिया. इस बीच प्रदेशाध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा अकेले अपने ही दम पर 'हाथ' को मजबूत करने की जद्दोजहद में अवश्य लगे रहे पर अकेला चना भाड झोक सकता है? क्योंकि प्रभारी सरदार
तो राजस्थान में असरदार है ही नहीं !
कांग्रेस के लिए अधिकतर समय राजस्थान प्रांत मुफीद साबित हुआ है. पहले राजा रजवाड़ा से आम जनता की दूरियां और फिर असंगठित कांग्रेस विरोधी राजनैतिक दलों की मजबूरियों से कांग्रेस ने सत्ता का खूब स्वाद चखा है लेकिन अब राज्य की सियासी फिजा बिल्कुल बदल चुकी है. भाजपा की जड़े बहुत मजबूत हो चुकी है जिसके लिए कांग्रेस नेताओं की आपसी फुटोव्वल और आराम की राजनीति जिम्मेदार है.
प्रदेश में इस वक्त बहुमत के बल पर भाजपा का शासन जरूर चल रहा है लेकिन यह भी किसी से छुपा हुआ नहीं है कि इस राज से हर कोई दुखी और परेशान है. यहां तक की सरकार के कई मंत्री सत्ताधारी दल के विधायक और आम कार्यकर्ता भी इस शासन से खफा हैं. ऐसे में कांग्रेस विपक्ष की भूमिका में जान डाल सकती है परंतु कांग्रेस तो स्वयं अपने ही बोझ से ही दबी जा रही है.
राजस्थान कांग्रेस में अशोक गहलोत और सचिन पायलट दो पावर स्टेशन तो पहले से ही है और अब तीसरी ताकत का केंद्र गोविंद सिंह डोटासरा भी बन चुके हैं. इनके अलावा कुछ नेता ताकतवर दिखाई तो देते है लेकिन नेतृत्व की दौड़ उनका "उठाव" नहीं है. ऐसे में इन नेताओं की संगठन को मजबूत करने में कोई खास दिलचस्पी नहीं है. इधर पावर स्टेशन वाले नेतागण भी अपने तरीके से ही कार्यकर्ताओं में पावर जेनरेट करते हैं जो पार्टी को कम व्यक्ति को ज्यादा मजबूत करता है.
बहरहाल वर्ष-2028 में राजस्थान में फिर से कांग्रेस सत्ता में लौटने का सपना भले ही पाल रखा हो लेकिन "लख" फिलहाल अच्छे नहीं है.